विद्याधर से विद्यासागर

*☀विद्यागुरू समाचार☀* विद्याधर से विद्यासागर

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सेठ जी की भाषा पर करुणा हो आई महाराज जी को वे उन समस्त श्रद्धालुओं को समझाने की दृष्टि से प्रवचन की रौ में बोल पड़े कोई साधक, कोई जिज्ञासु मेरी या आपकी इच्छा से वर्णी / क्षुल्लक / ऐलक / मुनि बने यह कैसे संभव है?

सुनिए सेठ वृंद, सुनिए, कोई भी तपसी मुनि ‘बनता’ नहीं, ‘हो’ जाता है। मैं उसे मुनि बना नहीं रहा, वह मुनि हो रहा है, मुनि अवस्था धारण कर रहा है। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। आपका कहना एक तो मैं मान नहीं सकता, मान भी जाऊँ, तो वह आपकी बात मानने बाध्य नहीं किया जा सकता।

सोचे, कोई तपसी अपना तप अपनी ही इच्छा से करेगा। उसे बाह्य तत्त्व पर रुकने सोचने विवश नहीं किया जा सकता। यदि उसके भीतर मुनि अवस्था धारण करने का दृढ़ संकल्प है तो मैं ही क्या, सारा देश इसे नहीं रोक सकता। वह अपनी साधना के बल पर देश के किसी भी मंदिर में मुनि अवस्था धारण करने को स्वतंत्र है, फिर मैं या आप उसके बाधक क्यों बने ?

-सोच लीजिए महाराज

-क्या सोचना है मुझे? आप लोग ऐसी बातें कर विधान में विघ्न प्रस्तुत कर रहे हैं। यह सब जो आप कह रहे हैं, तनिक भी उचित नहीं है।

  • पात्र की मजबूती तो देख लीजिए!

-देख ली मैंने। है मजबूत तपस्वी के संकल्पों की तरह वह समूचा पात्र मजबूत है, उसमें कोई कसर शेष नहीं है।

-मगर अभी आपके पास आए, सुनते हैं, सिर्फ ग्यारह माह ही हुए हैं, कुछ समय तो और दीजिए ताड़ना प्रताड़ना, परीक्षण अवलोकन भी तो आवश्यक है।

-वह सब कर चुका हूँ। वह पुष्प सा दिखने वाला सुकुमार युवक भीतर से वज्र सा कड़ा और निजाश्रित है। उसे कोमल न समझो। अब तो कोमलता उसके किसी हिस्से में नहीं रही। वह कंटक सा कड़ा हो गया है। भेदने के लिए, धर्म में … चरित्र में … तप में।

अपनी सी कहकर हार गए श्रेष्ठि जी पगड़ी के नीचे पसीना हो आया। फिर भी दीक्षा कर्म को अपनी और समाज की स्पष्ट सम्मति न दी और अधखिले से चेहरे लेकर उठ गए महाराज जी के सामने से लस्त पस्त खिन्न खिन्न । बिफरे-बिफरे। थकित अशांत लौट आए निज गृहों निवासों को कोठियों महलों को जहाँ सुख थे, स्वर्ण था, सुखाद्य था, सुनाद्य था, संगीत था, सुगीत था, सुविधा थी, सुमुखि थी, थे नहीं तो तप त्याग संयम न था आकिंचन्य का सु-भाव। न था तपसी भाव।

पोस्ट-88…शेषआगे…!!!

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