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#विद्याधरसेविद्यासागर (किताब)
रोगकाआभार, #गुरुकीस्तुति :
परीषह आकर चला गया तपस्वी जहाँ के तहाँ अड़िग रहे।उन्होंने रोग को धन्यवाद दिया उसके कारण परम पूज्य गुरुवर ज्ञानसागरजी के मुख से स्वाध्याय सुनने का गौरव मिला। मिला उनके चरणों में अधिक देर तक रुकने का सान्निध्य।
विद्यासागर मुनि दीक्षा के बाद से ही अपने भावों को कभी कभी उतारने लगे थे कागजों पर एक युवक का चिन्तन भीतर से गुंजन कर रहा था, फलतः कविताओं का जन्म होने लगा।
उनकी कलम ने पहली कविता लिखी थी-गुरु वंदना के रूप में गुरु का जो गुणगान हृदय के कोने-कोने में भरा था, वह शब्द बनकर निःसृत होने लगा। जो मन में था वही बाहर आया काव्य का काव्य, भक्ति की भक्ति गुरु वंदना का लेखन जब पूरा हो गया तो उस रचना का संज्ञाकरण हुआ ‘पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज की स्तुति’।
वह स्तुति भी वे किसी को न बतला सके। यह और बात है कि देखने वालों ने देख ली। श्रावक कभी-कभी इसी स्तुति को सामूहिक रूप में गाने लगे। स्वतः मुनि विद्यासागरजी भी अपने कंठ से अक्सर सस्वर उसे पढ़ते थे।
विद्यासागर की कलम चल पड़ी। अध्यात्म से पूर्ण, भक्तिगुण लेकर ही चली और चलती रही। धीरे-धीरे आचार्य शांतिसागरजी की स्तुति भी तैयार हो गई। फिर आचार्य वीरसागर की और उसके बाद आचार्य शिवसागर पर भी उनने स्तुतियाँ लिखीं।
गुरु वंदना से प्रारम्भ हुई उनकी लेखनी रोज-रोज नई-नई भावभूमियाँ लेकर चलने लगी और चिन्तन के मौलिक स्थलों की संरचना होने लगी डायरी-दर-डायरी।
तपस्या, गुरु भक्ति और साहित्य सर्जन के पठारों पर चल रहे थे विद्यासागर गुरु प्रसन्न श्रावक प्रसन्न इतना ही नहीं जिस वातावरण में रुकते ठहरते, वह प्रसन्नता से भर जाता।
लोग उनकी रचनाएँ सुनने के लिए भाँति-भाँति से चेष्टाएँ करते रहते। कुछ धीमान बाजौट के पास बैठे-बैठे चुपचाप रचनाएँ पढ़ जाते और घर जाकर प्रसन्नता से चर्चा करते अपने युवा योगी के लेखन कार्य से हर व्यक्ति आनंदित था, चाहे हो वह सामान्य श्रावक, चाहे हो वह कोई बुद्धिजीवी और चाहे हो वह कोई तपसी। सब आनंद लेते। प्रशंसा करते।
अड़सठ की अड़ी भी न चली और उस सन् को भी एक एक दिन की गति से चला जाना पड़ा। सन् ६९ का आगमन हो गया। विद्यासागर नाम के जोगी अपने गुरु के साथ-साथ छाया की तरह विचरण करते रहे। तपस्याओं का क्रम सघन होता गया। उपसर्ग सहने की क्षमताएँ बढ़ती गई। ज्ञानाभ्यास के लिए बैठके बढ़ती गईं।
पोस्ट-115…शेषआगे…!!!