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#विद्याधरसेविद्यासागर (किताब)
-अच्छा पंडित जी। दूसरे दिन स्नानोपरान्त ग्वाला पंडित से पूर्व कुँए पर आया, उसके बच्चे, पत्नी एवं अन्य स्वजन पनघट के पास खड़े हो गए, वह धम्म से कुँए में कूद गया। आवाज सुनकर पंडित घर से बाहर आया, उपस्थित लोगों से कारण जाना और वहीं खड़ा हो गया। ग्वाला जो कुँए में डूबा सो डूबा ही रह गया। पंडित को लगा-“ग्वाला मारा गया मुफ्त में। बड़ा भक्त बनने आया था। फिर भी लोक-लाज के कारण वह वहीं खड़ा रहा। बाहर खड़े सभी लोग ग्वाले की प्रतीक्षा करते रहे।
पंडित पशुपेश में पड़ा था। वह जानता था कि ग्वाला अब तक मर चुका होगा। उसका शव ही अब ऊपर आवेगा। वहाँ ग्वाला नाक बंद कर प्रार्थना कर रहा था जल देव से-“हे देव, आप पंडित को रोज दर्शन देते हैं, एक बार मुझे भी दें, मेरा जीवन भी कृतार्थ करें।”
ग्वाले की सांस टूटे, उसके पूर्व जल देव को निर्णय लेना पड़ा, उन्हें लगा, इसका विश्वास अटूट है, यदि दर्शन न देंगे तो व्यर्थ ही मारा जावेगा यह फलतः कुँए में जल देव प्रकट हो गए। उनकी भव्य छवि देखकर ग्वाला कृतकृत्य हो गया। हाथ जोड़कर उनके चरणों में शीश धर दिया। देव बोले-क्या चाहिए तुझे? चाहिए कुछ नहीं देवराज मैं तो बस आपके दर्शन चाहता था, सो हो गए। देव उसे आशीष दे अंतर्ध्यान हो गए। दृश्य कुँए के ऊपर से सभी लोग देख रहे थे पंडित जी भी। वे शर्म से झुक गए।
ग्वाले के चरणों की वंदना की ओर बोले सच्चे भक्त तो आप हैं। मैं तो मात्र दिखावा करता हूँ। आज आपके कारण हमें भी दर्शन हो गए। धर्म का सही अर्थ आज ही समझा हूँ। आपके अडिग विश्वास से ही यह क्षण उपस्थित हुआ है; आप सच्चे धर्मात्मा हैं। मुझे अपनी चरण रज प्रदान कीजिए। पंडित अपने विगत छल-छुद्र पर पश्चाताप करता रहा। दिखावा और आडंबर पर आत्मग्लानि करता रहा। ग्वाला जल देव से साक्षात्कार कर अपने हिल्ले में जुट गया।
मुनि विद्यासागरजी कन्नड़ भाषा में श्रावकों को समझाते हुए कहते हैं धर्म दिखावा, आडंबर, चमत्कार में नहीं है, वह आत्मा में जन्मे विश्वास में है और कहीं नहीं। मुझे नौ वर्ष की उम्र में यह विश्वास हो गया था, इसे मैं अपना सु-भाग्य मानता हूँ।
दो माह का समय धर्म के सागर में बिता देने के बाद मल्लप्पाजी का परिवार पुनः अजमेर से स्वगृह की ओर लौट पड़ा, मन में विद्यासागर की छवि संजोकर।
पोस्ट-119…शेषआगे…!!!