विद्याधर से विद्यासागर

विद्याधर से विद्यासागर

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श्रद्धेय ज्ञानसागर परम ज्ञानी थे। वे ब्रह्मचारी जी की आवाज में सच्चाई पा रहे थे, मगर वे यह भी सोच रहे थे कि सल्लेखनाव्रत यदि उन्हें दे दिया तो उनकी वैयावृत्ति कौन करेगा। वे स्वतः अपने तन को वृद्ध और दुर्बल पा रहे थे। सोचते सोचते उनकी आँखें विद्यासागर के चेहरे पर केन्द्रित हो गईं।

दोनों शान्त एक दूसरे को देखते रहे। जैसे एक आत्मा अन्य आत्मा से कोई गोपन- चर्चा कर रही है। विश्वास के अंकुर जम आए जब ज्ञानसागर के मानस में, तब उन्होंने ब्रह्मचारी पत्रालालजी को सल्लेखना दीक्षा प्रदान की। दीक्षा के बाद उनकी पदोचित परिचर्या का प्रभार दिया विद्यासागरजी को।

मुनि विद्यासागरजी पन्नालालजी (क्षपक) के देह को आवश्यक चर्चाओं का योगदान देते दिलाते उनके आत्म-विकास पर ध्यान देने लगे। वे उनमें त्याग की भावना बलवती करने में सफल रहे। अन्न-जलादि के त्याग के बाद उन्होंने ब्रह्मचारी जी को वस्त्रादि त्याग कर मुनि दीक्षा लेने प्रेरित किया।

विद्वान् क्षपक अपने युवा योगी के योगपूर्ण वार्तालाप से सीमाधिक • प्रभावित हुए और जब ज्ञानसागरजी उनके समाचार लेने वहाँ पहुँचे तो उनसे दिगम्बरी-दीक्षा प्रदान कर देने की प्रार्थना करने लगे।

ज्ञानसागरजी अपने जीवन के साथ अन्यों का भी जीवन सुधारना चाहते थे, अतः उनने दीक्षा प्रदान कर दी। ब्रह्मचारी जी हो गए मुनि पवित्रसागर जी , विद्यासागरजी गुरु आज्ञा के अनुसार उनकी वैयावृत्ति में बराबर पल-पल ध्यान देते रहे।

एक दिन शांतिपूर्वक शांतिपथ पर चलने की तैयारी कर ली, पवित्रसागरजी ने विद्यासागरजी ने उन्हें अंतिम उपदेश दिया और वे असार से सार की ओर गमन कर गए। एक आत्मा सही पथ पा गयी।

ज्ञानसागरजी के सान्निध्य में विद्यासागरजी के हाथों एक और मंगलकाज पूर्ण हो गया। दक्षिण का संत उत्तर का बसन्त बन गया।

पोस्ट-122…शेषआगे…!!!

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