शेयर
#विद्याधरसेविद्यासागर (किताब)
विद्यासागर जैसे मनीषी शिष्य और ज्ञानसागर जैसे ज्ञानी गुरु को देख नसीराबाद (राज.) के जैन समाज के अनुरोध पर दिनांक ७ फरवरी, १९६९ शुक्रवार को गुरु ज्ञानसागरजी को आचार्यपद से विभूषित कर दिया।
गुरु-सेवा, तत्त्व- चिंतन और अध्यात्म-मनन के साथ विद्यासागरजी श्रमणसंघ में निरन्तर सक्रिय रहे। महान् ग्रंथों के तलस्पर्शी अध्ययन से उनमें पांडित्य का ज्ञानबोध हिलोरें लेने लगा। देखते ही देखते वयोवृद्ध ज्ञानसागरजी महाराज उनमें एक सक्षम गुरु / आचार्य की मूर्ति देखने लगे, जर्जर काया को बिदा देने के उद्देश्य से एक दिन गुरु ज्ञानसागरजी ने अपने आचार्यपद का त्याग किया और परम विद्वान् शिष्य विद्यासागर से आचार्यपद ग्रहण करने का अनुरोध किया।
समय की नाजुकता को पहचानते हुए, पूज्य विद्यासागरजी ने गुरु ज्ञानसागरजी से २२ नवम्बर, १९७२ को नसीराबाद में आचार्यपद ग्रहण किया।
गुरु निरंतर दुर्बल हो रहे थे, साइटिका और दमा जैसी बीमारियाँ उनके देह तत्त्व को सता रही थीं, अतः शरीर का उपयोग न देखते हुए उन्होंने एक दिन अपने नये-नवारे आचार्य से समाधि-मरण की दीक्षा हेतु निवेदन किया। शिष्य के शिष्य बने वे उस दिन और देहत्याग के लिये अडिग हो गये।
आहार, जल, रसपानादि छोड़कर अपने नव- गुरु विद्यासागर की छत्रछाया में नव-शिष्य ज्ञानसागरजी शिखर यात्रा पर अग्रसर हुए और १ जून, १९७३ शुक्रवार को नसीराबाद नगर में ही विद्यासागर की महान् सेवाओं को सु-पुण्य प्रदान करते हुए, समाधिलीन हो गये। उस शुक्रवार को आत्म परेवा जब उड़ा तो दिन के १० बजकर २० मिनट हो चुके थे।
पोस्ट-126…शेषआगे…!!!