ईश्वरवारा-मुनि श्री अजित सागर जी महाराज के संसघ सानिध्य में शांति धारा एवं असीम कालीन विधान हुआ संपन्न

JAIN SANT NEWS ईश्वरवारा

ईश्वरवारा-मुनि श्री अजित सागर जी महाराज के संसघ सानिध्य में शांति धारा एवं असीम कालीन विधान हुआ संपन्न

– ईश्वरवारा-

मुनि श्री अजित सागर जी महाराज, ऐलक श्री दया सागर जी महाराज,ऐलक श्री विवेकानंद सागर जी महाराज के सानिध्य एवं ब्रह्मचारी रविंद्र भैया, ब्रह्मचारी गौतम भैया के मार्गदर्शन में जयोदय अतिशय क्षेत्र में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए गए। अनुष्ठान के प्रथम दिवस प्रातः काल की बेला में भगवान शांतिनाथ, भगवान अरहनाथ, भगवान कुंथुनाथ का अभिषेक एवं शांति धारा संपन्न हुई। तदुपरांत असीम कालीन विधान का आयोजन किया गया। जयोदय अतिशय क्षेत्र के प्रचार- प्रसार मंत्री अशोक शाकाहार ने बताया कि रविवार को भगवान शांतिनाथ के जन्म, तप एवं मोक्षकल्याणक पर महामस्तकाभिषेक एवं विधान आयोजित किया जाएगा। दोपहर 1:00 बजे से मुनि संघ के सानिध्य में एक आवश्यक बैठक का आयोजन संपन्न होगा। जिसमें जयोदय अतिशय क्षेत्र के सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक दिशा निर्देश मुनि संघ के द्वारा दिए जाएंगे। कमेटी के पदाधिकारियों ने अधिक से अधिक संख्या में पहुंचकर धर्म लाभ लेने की अपील समस्त बुंदेलखंड वासियों से की।

प्रेम ‘मां’ की तरह पवित्र निस्वार्थ एवं स्वाभाविक होना चाहिए— मुनि श्री अजित सागरजी

जयोदय अतिशय क्षेत्र में तीन दिवसीय अनुष्ठान के प्रथम दिवस पर विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए मुनि श्री अजित सागर जी महाराज ने कहा की भगवान महावीर ने प्रेम की जगह वात्सल्य शब्द चुना। वात्सल्य का अर्थ है- मां की तरह पवित्र प्रेम, नि:स्वार्थ वासना विहीन प्रेम। आत्मिक प्रेम, स्वाभाविक प्रेम। आज हम देख रहे हैं की प्राय: हर परिवार तनाव के दौर से गुजर रहा है, क्योंकि प्रेम की रसधार सूख गई है। जहां स्नेह नहीं होता, वहा सहिष्णुता और परस्पर सामंजस्य की भावना नहीं बन पाती। प्रेम के कई रूप हैं- दीन दुखी के साथ करूणा का, सामान्य पुरुष के साथ मैत्री का और परमात्मा के साथ भक्ति का रूप ले लेता है। मुनि श्री ने कहा कि भाई -भाई में प्रेम राम और भरत जैसा होना चाहिए। सास बहू में प्रेम सीता- कौशल्या जैसा होना चाहिए। पिता- पुत्र में प्रेम राम और दशरथ जैसा होना चाहिए। गुरु और शिष्य का प्रेम महावीर एवं गौतम जैसा होना चाहिए। मुनि श्री ने कहा कि याद रखिए प्रेम संकुचित ना होवे। संकुचित प्रेम में अपने ही सुख को प्रधानता दी जाती है। विराट प्रेम में सब को सुखी देखने की भावना होती है। संकुचित प्रेम के कारण ही एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय से घृणा करने लगता है। यहां तक कि भाई- भाई भी एक दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं। आत्म विश्वास पूर्वक को आप अपने जीवन में विराट प्रेम प्रभावित होने दीजिए, तब आप सबके बनेंगे और तब ही सभी व्यक्ति आपके बनेंगे।
मुनि श्री ने कहा कि मोह और प्रेम में बहुत बड़ा अंतर है। प्रेम जीवन का प्रकाश है, तो मोह अंधकार है।

प्रेम उत्थान की राह है, तो मोह पतन की प्रेरणा। प्रेम आत्म धर्म है, तो मोह देह धर्म है। प्रेम त्याग का पुजारी है, तो मोह राग और भोग का भिखारी हैं। प्रेम दिल में रहता है, तो मोह आंखों में बसता है। प्रेम असली है, तो मोह नकली है।

संकलन अभिषेक जैन लुहाडीया रामगंजमडी

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