हमें स्वयं को बदलना होगा। हमारे अंदर धर्म की जो राय बनी है उसे टटोलना होगा। बिना बदले धर्म हो नहीं सकता शुद्धसागर महाराज
रावतभाटा
पूज्य श्रमण मुनि शुदसागर महाराज ने अपनी अमृतमयी वाणी से उद्बोधन देते हुए स्वयम को बदलने का उपदेश दिया धर्म मार्ग चलने के लिए स्वयंम को बदलना होगा। उन्होने रोटी का उदाहारण देते हुए कहा की जब बिना बदले रोटी नहीं बन पाती है तो हम धर्मात्मा कैसे बन सकते हैं। इस लिये हमारे अंदर धर्म की जो राय बनी है उसे टटोलना होगा। बिना बदले धर्म हो नहीं सकता।
धर्मात्मा जो होता है उसे बदलना पड़ता है।
पूज्य मुनि श्री ने आत्मा नरक तिर्यंच गति पर प्रकाश डालते हुए कहा की आत्मा में कोई बदलाव नहीं आता है वह नरक, तिर्यक , निगोद संसार सभी जगह समान है। उन्होने कहा संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं, कुछ पापात्मा व कुछ पुण्यात्मा। दोनों की आत्मा वहीं होती है उसमे कोई बदलाव नहीं आता है। मात्र अंतर इतना होता है कि धर्मात्मा जो होता है उसे बदलना पड़ता है।
मात्र मंदिर जाने से, अभिषेक, पूजन करने से हम धर्मात्मा नहीं बनते हैं
पूज्य मुनि श्री ने सटीक बोलते हुए कहा मात्र मंदिर जाने से, अभिषेक, पूजन करने से हम धर्मात्मा नहीं बनते हैं। हमे अपने आचार, विचार,परिणीत सब बदलना होगा तभी हम धर्मात्मा बन सकते हैं। उन्होने इस बात पर जोर दिया की धर्मात्मा जो होता है वह पाप से डरता है, पाप करने से डरता है परन्तु वह पापी से नहीं डरता है। हमें यह विचारने जी जरूरत है कि हम पाप से डरते हैं या पापी से? यदि हम पाप से डरते हैं तो हम धर्मात्मा हो सकते हैं।
पापी से घृणा करना ही पाप है
उन्होने पाप और पापी के विषय मे कहा की पापी से डरने वाला तीनो काल मे कभी भी धर्मात्मा नहीं होने वाला नहीं पापी से घृणा करना ही पाप है। पाप से घृणा करने वाला, पापी से घृणा कर ही नहीं सकता है। अपने आप से राग करना तथा दूसरों से घृणा करना यही पाप होता है। बिना बदले संसार में कोई कार्य संभव नहीं होता है। कार्य की परिभाषा देते हुए मुनि श्री ने कहा की वस्तु का बदल जाना ही कार्य है। भाव बदलेंगे तो परिणीत बदलेगी उससे क्रिया भी बदलेगी तभी हम धर्मात्मा बन पाएंगे। मुनि श्री ने कहा धर्म और विवेक का सहवर्ती पना संबंध है।
विवेक के बिना धर्म नहीं
पूज्य मुनि श्री और प्रकाश डालते हुए कहा जहा विवेक होता है वही धर्म होता है विवेक के बिना किंचित मात्र भी धर्म नहीं हो सकता जो धर्मात्मा होगा वह प्रति समय अपनी परिणतिको प्रति समय सोचता, व उसके बाद ही कार्य को सिद्ध करता है। पूज्य मुनि श्री ने अंत मे कहा की सुख – दुख दोनों हमारे कर्म का निमित होता है। घात करने से कभी दुख समाप्त नहीं होता है। यह सब हमारे कर्म का उदय होता है।
संकलन अभिषेक जैन लूहाडीया रामगंजमंडी