इंदौर। कषाय की चार संतान हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। इन चारों संतानों में लोभ (कषाय) नाम की संतान सभी पापों, दुखों की जनक है। इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है। लोभी व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन एवं अन्य चल- अचल संपत्ति के संग्रह की इच्छा पूर्ति के लिए येन केन प्रकारेण प्रतिक्षण लगा रहता है।
यह उद्गार 10 दिवसीय पर्यूषण पर्व के चौथे दिन शनिवार को उत्तम शौच धर्म पर समोसरण मंदिर कंचन बाग में प्रवचन देते हुए मुनि श्री आदित्य सागर जी महाराज ने व्यक्त किए। शौच धर्म की चर्चा करते हुए मुनि श्री ने कहा कि लोभ की निवृत्ति उत्तम शौच धर्म है, जहां निर्लोभता होगी वहीं शौच धर्म होगा। अपने अंदर निर्लोंभ वृत्ति, संतोष का भाव और आचरण में शुचिता लाना ही शौच धर्म है। अंत में मुनिश्री ने कहा कि लोभ को जीतना और अपनी आत्मा में शौच धर्म प्रकट करना है तो अपनी इच्छाओं और आवश्यकता से अधिक संग्रह की प्रवृत्ति पर नियंत्रण करो। जो है उसमें खुशी, संतुष्टि और संतोष महसूस कर शौच धर्म का पालन करो। सभा का संचालन श्री हंसमुख गांधी ने किया।