आत्मा को निर्मल करने के लिए संयम का साबुन जरूरी है – आचार्य अतिवीर मुनि

JAIN SANT NEWS रेवाड़ी

रेवाड़ी। परम पूज्य आचार्य श्री 108 अतिवीर जी मुनिराज ने दशलक्षण महापर्व के अवसर पर अतिशय क्षेत्र नसिया जी में आयोजित श्री तीस चौबीसी महामण्डल विधान में धर्म के षष्टम लक्षण “उत्तम संयम” की व्याख्या करते हुए कहा कि संयम धारण किए बिना मोक्ष संभव नहीं है। पांच इंद्रियों और मन को नियंत्रित रखना इंद्रीय संयम तथा षट्कायिक जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है। ये दो पटरी अगर बन गईं तो जीवन की गाड़ी मोक्ष तक जा सकती है। हमें हिंसा आदि दोष से बचने के लिए संयम पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि संयमन को संयम कहते हैं। संयमन यानि उपयोग को पर-पदार्थ से समेट कर आत्म-सन्मुख करना, अपने में सीमित करना, अपने में लगाना। उपयोग की स्वसन्मुख्ता, स्वलीनता ही निश्चय संयम है। पांच व्रतों को धारण करना, पांच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दंडों का त्याग करना और पांच इन्द्रियों के विषयों को जीतना संयम है। संयम के साथ लगा ‘उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन की सत्ता का सूचक है। जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलागम संभव नहीं है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलागम संभव नहीं है।

आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संयम के साबुन की आवश्यकता होती है। संयमी व्यक्ति ही कर्म के उदय रूपी थपेड़ों को झेल पाता है। अभी तक सभी को संयम एक प्रकार से बंधन ही लगा करता है। जैसे लता के लिए लकड़ी आलम्बन और बंधन के रूप में उसके विकास के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान को उसकी चरम सीमा अर्थात मोक्ष तक पहुंचाने वाला ही संयम का आलम्बन और बंधन है। आज तक संयम के अभाव में ही इस संसारी प्राणी ने अनेकों दुःख उठाये हैं। जो उत्तम संयम को अंगीकार कर लेता है, परंपरा से वह मोक्ष अवश्य प्राप्त कर लेता है। आत्मा का विकास संयम के बिना संभव ही नहीं है। संयम वह है जिसके द्वारा जीवन स्वतंत्र और स्वावलम्बी हो जाता है।

आचार्य श्री ने यह भी कहा कि संयम वह सहारा है जिससे आत्मा ऊर्ध्वगामी होती है, पुष्ट और संतुष्ट होती है। सम्यग्दृष्टि संयम को सहज स्वीकार करता है। संयम का बंधन ही हमें निर्बंध बना देता है। हमारे विकास में सहायक बनता है, हम ऊपर उठने लगते हैं और अपने स्वभाव को प्राप्त करके आनंद पाते हैं। जिसने संयम की ओर जितने कदम ज्यादा बढ़ाए हैं, उसकी कर्म-निर्जरा भी उतनी ही ज्यादा होगी। संयम की ओर कदम बढ़ाने पर बिना मांगे ऐसा अपूर्व पुण्य का संचय होने लगता है जो असंयमी के लिए कभी संभव ही नहीं है। संयम के माध्यम से ही आत्मानुभूति होती है। संयम के माध्यम से ही हमारी यात्रा मंजिल की ओर प्रारम्भ होती है और मंजिल तक पहुंचती है।

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